सोमवार, 20 जुलाई 2020

जीवन अभी भी शेष है

ना जानें क्यूं ये खामोशी है
मातम सा माहौल क्यूं हर देश है।
मुस्कुरा कर जी लो इस लम्हें को
क्यूंकि जीवन अभी भी शेष है।।

लाखों प्राणों का अंत हुआ
मानो काल अभी हम से कुछ रूष्ट है।
पर जो गए उनकी यादों के संग जियो
क्यूंकि जीवन अभी भी शेष है।।

उपवन की भांति हृदय कठोर करो
पतझड़ आने का ना शोक करो।
खिलती कली की तरह प्रफुल्लित हो जाओ तुम
क्यूंकि जीवन अभी भी शेष है।।

सोचो कुछ सूक्ष्म जीवों ने
मचाई कैसी ये त्रासदी है।
आओ दृढ़ता के संग मात दें इस दानव को
क्यूंकि जीवन अभी भी शेष है।।










रविवार, 19 जुलाई 2020

क्यों मौन हो तुम?

क्यों मौन हो तुम? कुछ तो बोलो
शब्द ना मिले तो लिख ही डालो।
अक्षरों से अपने मन को टटोलकर
भावनाओं को व्यक्त करो।।

घाव तो आखिर सब ने देखे है
साथ में असहनीय दर्द भी झेले हैं।
कुछ पीड़ा त्वचा पर दिखती तो है
शेष मस्तिष्क को आजीवन कुरेदती है।।

जीवन ही तो है, कट जाएगा ये सफर भी
अपनी आत्मा को निर्भीक करो तुम।
खुद बनो प्रेरणा अपनी और
हर मोहपाश को तोड़ डालो तुम।।

सामर्थ्य है तुम में भीम तुल्य
अपनी सक्षमता पहचान के देखो।
डरावनी है सिर्फ सोच भविष्य की ये तुम जानो
क्यों मौन हो तुम? कुछ तो बोलो।।



शनिवार, 18 जुलाई 2020

मृत्यु

सत्कर्म कर या तू कर कुकर्म
मैं मृत्यु हूं मैं हूं अटल।
ना ऊंच नीच का भेद करूं
मेरा उद्देश्य है अविरल।।

जीवन प्रकृति देती है
मैं काल हूं आत्मा हरता हूं।
संसार एक क्षणिक पगडंडी है
उस पथ का गंतव्य मैं ही हूं।।

जिस प्रकार तेरा हो आचरण
वैसा ही अंत तेरा होगा।
ना समझ खुद को अमर कभी तू
मैं मृत्यु हूं, किसी को कभी नहीं छोड़ा।।

दीर्घायु हो या हो अल्पायु
कोई भेद भाव ना इसका मेरे मन में।
अपने जीवित क्षणों को सार्थक बना
और छोड़ अमिट छाप अपनों के हृदय में।।



वो दिन

आओ चलें फिर से उस छोटे से शहर में
जहां अपना सा लगता था हर इक लम्हा।
सोसायटी नहीं वहां मोहल्ले होते थे
पड़ोसी भी परिवार का हिस्सा हुआ करते थे।।

तेल चीनी का लेन देन होता था
हर त्योहार संग मनाया जाता था।
जब पड़ती थी किसी एक पर कोई विपदा
पूरा शहर पूरी ज़ोर लगा कर साथ खड़ा हुआ करता था।।

दोस्तों के सानिध्य में अलग सी मस्ती हुआ करती थी 
मोबाइल की जगह किताबें हाथ में होती थी।
खेल कूद भी निराले ही थे हमारे
खोखो कबड्डी और लुडो थे पब जी और पोकीमॉन हमारे।।

याद है वो ज़माना आज भी
जब दस घर मिला कर एक टीवी हुआ करता था।
आज की ये दुनिया भी देखी
जब हर कमरा एक सिनेमाघर सा है होता।। 

मटके थे रेफ्रिजरेटर उन दिनों के
और सीएफएल की जगह लालटेन था।
गर्मी से जब नींद नहीं आती थी
तब पापा का हाथ पूरी रात पंखा था झेलता।।



कलयुग

जब हुई भिन्न मानव से मानवता
हुई समाप्त धर्म व सत्य की मर्यादा।
फिर कलयुग ने भीषण हुंकार भरी
छल प्रपंच से भरी ये दुनिया आयी।।

विद्या विद्वानों से रूठ गई
चंचल लक्ष्मी की गति विपरीत हुई।
निर्बल निर्धन भी होते रहे
सबलों की हांडी भरती गई।।

प्रकृति संग खूब खिलवाड़ हुआ
विज्ञान के हत्थे सब संसाधन चढ़ा।
प्रगति के नाम पर क्या कुछ ना गवाया 
पृथ्वी को बंजर नकारा बनाया।।

अकारण शोध करने हेतु
अंतरिक्ष को भी ना हमने छोड़ा।
अपनी सुख सुविधा की वस्तु के लिए
वातावरण की परतों को छेद दिया।।

यह समय है जागृत होने का
खोया हुआ अमृत पाने का।
यह त्याग निष्चित ही कठिन होगा
पर निःसंदेह वो कल हमारा सुखमय होगा।।

रविवार, 14 जून 2020

लक्ष्मण

शेषनाग मैं!  मानव योनि में जन्म लेना मेरा निश्चित था
नियति ने रघुकुल में भेजा, बन सौमित्र पृथ्वी पर मैं आया।
पिता महाराज का लाड़ बहुत था, तीनों मांओं का स्नेह मिला
बाल सखा थे भाई मेरे - शत्रुघ्न, भरत और राम लला।

अगले चरण में गुरुकुल जाकर गुरु वशिष्ठ से शिक्षा पाई
ब्याह रचा उर्मिला के संग मिथिला का बन गया जमाई।
वचनबद्ध बेबस पिता ने जब अग्रज को दी वनवास की आज्ञा 
ना सोचा इक क्षण भी कुछ मैंने, बन योगी सब मोह त्याग दिया।

प्रहरी बन कर दिवा रात्रि सीताराम को निश्चिंत किया
और बन बावर्ची उन्हें खिलाया सनेहपुर्ण अधपका निवाला।
मारीच की चाल जान चुका था, फिर भी भाभी की हट्ठ को माना
निकल पड़ा श्री राम को ढूंडने, खींच अनोखी लक्ष्मण रेखा।

शूर्पणखा की नाक काटकर, नारी की सुन्दरता भंग करी
उस स्त्री में छल बहुत था, उसकी धृष्टता की यही सजा थी।
सीता मैया की खोज में जाने कितने वीरों से भेंट हुई
इस पड़ाव पर आकर मैंने बजरंग बली की भक्ति देखी।

पहुंच गए हम लंका  नगरी, लेकर पहली वानर सेना
दानवों में भी शक्ति बहुत थी, ब्रहमास्त्र से चोटिल हो यह जाना।
संजीवनी ने जीवन दान दिया फिर मेघनाद का अंत किया
रह प्रभु की छाया में मैं, रावण वध का साक्षी बना।।




शुक्रवार, 12 जून 2020

अर्जुन की व्यथा

घूमती मीन की आंखों को जिस अर्जुन ने था भेद दिया
आज मौन खड़ा है निर्बल सा जैसे खुद से ही हारा हुआ।
कुरुक्षेत्र की पावन धरती भी आज लगती है श्रापित मुझे
दोनों दलों में अपने हैं ना जाने ये क्या हो रहा।

मत मान हार तू ओ पथिक, रस्ता अभी भी शेष है
ले तू बस एक अल्पविराम, जय करना तुम्हे हर देश है।
यह धर्मयुद्ध है जिसके शत्रु दुर्योग से हमारे बंधु हैं
मानवता की रक्षा हेतु, अनिवार्य तुम्हारा वीर वेश है।

सुनकर केशव की ये बातें, हाथों में गांडीव उठा लिया
कर नमन श्रेष्ठ जनों को मन में, प्रत्यंचा मैंने चढ़ा लिया।
व्याकुल मन की पीड़ा ऐसी, अंदर से थी मानो रौंद रही
पर धर्म की रक्षा करने को इस विष को मैंने पी लिया।

सारथी बने थे वासुदेव, ऊपर स्वयं हनुमान आसीन थे
पवन वेग थी मेरे रथ की और तरकश बाणों से भरे हुए।
क्या सगे संबंधी क्या गुरु और क्या ज्येष्ठ मेरे खुद के कुल के
निर्मम मृत्यु का ना सिर्फ साक्षी बना आज हत्यारा भी मैं बन ही गया।।